वामपंथ की फरेबी शब्दावली के दो शब्दः ‘दक्षिणपंथ’ और ‘फासीवाद’- श्री राजेश.
लेखक , पत्रकार एवं राजनीतिक तथा सामाजिक विश्लेषक श्री राजेश का लेख.
24 Jun 2016 | 745
इन दिनों दो शब्द फीजा में खूब तैर रहे हैं- ‘दक्षिणपंथ’ और ‘फासीवाद’. और इन शब्दों का वामपंथी धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं. इन शब्दों के निहितार्थ को समझने के पूर्व इस तथ्य को जानना महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर ये ‘दक्षिणपंथ’ या फिर ‘वामपंथ’ शब्द की उत्पत्ति कहा से हुई? क्या है ‘दक्षिणपंथ’ या फिर ‘वामपंथ’? दरअसल, सन् 1789 की फ्रांस की संसद में राजसत्ता के हिमायती लोगों को प्रेसिडेंट के दक्षिण में बैठने की जगह दी गयी जबकि फ्रांसीसी क्रान्ति के समर्थकों को बाईं तरफ स्थान मिला था. वहीं से इस दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ की उत्पत्ति हुई. दक्षिण बनाम वाम की उत्पत्ति के इन मूल कारणों को आधार मानकर क्या यह कहा जा सकता है कि भारतीय संसद में कभी इस तरह की किसी बैठक की व्यवस्था की गयी है? सवाल ये भी है कि जिस समुदाय अथवा व्यक्ति पर आज दक्षिणपंथी होने का आरोप वामपंथी मढ़ते हैं क्या उस समुदाय ने कभी लोकतांत्रिक व्यवस्था को नकारा है? इसके इतर आखिर क्यों लोगों के अधिकारों के लिए जूझने वाले वामपंथी सिमटते जा रहे हैं? क्या यह कोई संगठनात्मक कमजोरी है या फिर कार्ल मार्क्स का सिद्धांत ही गलत है? क्या केवल इंसान रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जीवित है या फिर उसकी जरूरतें कुछ और भी हैं? ऐसे ढेरो सवाल खड़े होते हैं.
‘डेलीओ’ में अमेरिकी वेदाचार्य डॉ. डेविड फ्रावली के प्रकाशित एक लेख में रेखांकित किया गया है कि कैसे वामपंथ ने भी समान रूप से हिंसा फैलाई, जातीय-संहार किए और लोकतंत्र का दम घोंटा है. सोवियत संघ (आज के रुस) के जोसेफ स्टालिन, हिटलर जितने ही बुरे और मुसोलिनी से भी बदतर थे. स्टालिन ने अपने ही दसियों-लाख देशवासियों को मरवा दिया. स्टालिन ने हिटलर के साथ 1939 में एक दूसरे पर आक्रमण न करने की संधि की और इसने उन दोंनों के बीच पोलेंड का बंटवारा करवाया. बाद में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ और हिटलर को सोवियत संघ के साथ के बिना किसी दूसरे मोर्चे के डर के फ्रांस पर आक्रमण करने का मौका मिला. 1941 में सोवियत संघ पर किया गया हिटलर का ही हमला था जिससे स्टालिन का नाज़ियों से ये गठजोढ़ टूट गया. फिर भी वामपंथियों ने स्टालिन की हिटलर से उस मित्रता को आसानी से भुला दिया, जिसकी वजह से पोलैंड बर्बाद हुआ और द्वितीय विश्व युद्ध का शुरु हुआ.
अगर चीनी कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग की बात करें… तो माओ की तानाशाही नीतियों और राज्य चलाने का तरीका किसी भी घनघोर फासीवादी से प्रतिस्पर्धा कर सकता है. साल 1976-77 में माओ की ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के दौरान लाखों लोग मारे गए, अनगिनत किताबें जला दी गईं, पूरे देश में विश्वविद्यालय बंद कर दिए गए. जबकि भारतीय वामपंथियों ने माओ के इन अत्याचारों पर कभी चर्चा नहीं की.
चीन के कम्युनिस्ट दलाई लामा को फासीवादी कहते हैं और भारतीय मार्क्सवादी इस बात का समर्थन करते हैं. रूस और चीन के कम्युनिस्टों ने बतौर नास्तिक अनगिनत चर्च, मंदिर और मस्जिदें ढहाईं. वामपंथी हिंदुओं की धार्मिक असहिष्णुता की आलोचना करने में आनंदित होते हैं. ये तब है जबकि हिंदुओं ने तो कभी किसी देश पर आक्रमण किया ही नहीं. वामपंथियों को पाकिस्तानी हिंदुओं की भी कोई चिंता नहीं है जिनके लिए पाकिस्तान में कोई राजनैतिक या मानवीय अधिकार नहीं हैं और उनका एक-साथ सफाया किया जा रहा है.
यहूदियों का जनसंहार नाज़ी बर्बरता का पर्याय माना जाता है. इसके बावजूद भी वामपंथी इज़राइल और खास कर यहूदी विरोधी हैं. जिनकी संवेदनाएं किसी भी तरह से इज़राइल के साथ हैं, वे वामपंथियों की नज़र में फासीवादी हैं और यूरोप में भी यहूदियों पर बढ़ते हुए हमलों की तादात वामपंथियों के लिए कोई चिंता का विषय नहीं है. भारत के अब तक के सबसे अलोकतांत्रिक कृत्य 1975-77 के बीच हुआ जब इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा था, प्रेस की स्वतंत्रता और लोकतंत्र को निष्प्रभावी कर दिया था. क्या इंदिरा गांधी के इस कृत्य को फासीवादी नहीं कहा जा सकता? और फिर उस सांप्रदायिक हिंसा और सिखों पर हुए हमलों का क्या जो इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए… उसे क्या कहा जाएगा? यह आजाद भारत का सबसे बड़ा नरसंहार था.
हिटलर के प्रचारक गोयबल्स ने यह उक्ति यूं ही नहीं कही होगी कि अगर किसी झूठ को सौ बार बोला जाय तो सामने वाले को वह झूठ भी सच लगने लगता है. भारत के वामपंथियों के संदर्भ में अगर देखा जाय तो आज ये उक्ति काफी सटीक नजर आती है. ये दो शब्द हैं- दक्षिणपंथ एवं फासीवाद. वर्तमान में ये शब्द वामपंथियों द्वारा हिंदूवादी संगठनों के लिए बतौर गाली प्रयोग किये जाते हैं. जिनका भारतीय लोकतंत्र एवं इसकी राजनीतिक-सामाजिक संरचना से कोई वास्ता नहीं है. भारत में जो राष्ट्रवादी होता है वही वामपंथ की इस फरेबी शब्दावली में दक्षिणपंथी घोषित कर दिया जाता है. आप तथ्यों को आधार मानकर ही देखिये तो आपको किसी ना किसी रूप में दक्षिणपंथ शब्द का प्रयोग करते भारी संख्या में वामधारा वाले मिलेंगे.
सही अर्थों में देखें तो राष्ट्रवाद एवं दक्षिणपंथ दो अलग-अलग शब्द हैं जिनको वामपंथियों द्वारा एक बता कर प्रचारित किया जाता रहा है. भारतीय लोकतंत्र में साम्प्रदायिकता बनाम पंथनिरपेक्षता की बहस की गुंजाइश बेशक आज भी हो सकती है लेकिन वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की बहस तो महज भ्रम के ढेर पर टिकी है. भारत में सही बहस वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की बजाय राष्ट्रवाद बनाम वामपंथ की होनी चाहिए थी. कुल मिलाकर अगर देखें तो भारत की वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक संरचना में दक्षिणपंथ शब्द का ना तो कोई अर्थ दिखता है और ना ही इसका कोई तार्किक एवं ऐतिहासिक महत्व ही नजर आता है. अगर वामपंथ के पूरे इतिहास पर नजर दौड़ाए तो आश्चर्य होगा कि जिस कृत्य को तनिक भी फांसीवादी कहा जा सकता है, उसे शायद ही वामपंथियों ने न किया हो. लेकिन वामपंथी इसे हमेशा नजरअंदाज कर देते हैं. आज कल वामपंथी हिंदुओं और हिंदुवादी संगठनों की निंदा गौहत्या की वजह से हुई कुछ छिटपुट घटनाओं को लेकर कर रहे हैं. लेकिन आईएसआईएस के आतंकी कृत्य को लेकर उनकी टिप्पणी कहीं सुनने को नहीं मिलती. पश्चिम एशिया की वर्तमान स्थितियों पर नजर दौड़ाए तो यहां के देशों में गृहयुद्ध जारी है और आतंकी हमले हो रहे हैं, लेकिन वहां कोई हिंदू नहीं है. उन घटनाओं पर वामपंथी मौन है. इस तरह यह कहा जा सकता है कि वामपंथियों का विरोध कहीं सेलेक्टिव तो नहीं है?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)