उत्तर प्रदेश विस चुनावः रोमांचक ड्रामे का आगाज

उत्तर प्रदेश की सियासत में जून की तपिश बढ़ने लगी है..

02 Jul 2016 |  1043

उत्तर प्रदेश की सियासत में जून की तपिश बढ़ने लगी है. सपा अपना वोट बैंक बनाये रखने के लिए मुस्लिमों को अपने पाले में करने की मशक्कत करती दिखती है तो वहीं बसपा के हाथी के पैर डगमगाते दिख रहे हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य ने बसपा से बगावत कर अलग हो कर मायावती को जोर का झटका दिया है. कांग्रेस प्रशांत किशोर की नैया पर सवार हो यूपी की चुनावी वैतरणी पार करने के जद्दोजहद में लगी है तो भाजपा नरेंद्र मोदी के चेहरे और केंद्र सरकार की उपलब्धियों के साथ सोशल इंजीनियरिंग के सभी मोहरे चल रही है. ऐसे में उत्तर प्रदेश की सियासत की बारिक पड़ताल करती श्रीराजेश की रिपोर्ट... अभी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तकरीबन 10 महीने का समय है. लेकिन सियासी पारा लगातार चढ़ता जा रहा है. दरअसल, देश के सबसे बड़े राज्य होने की वजह से इस राज्य की राजनीति हमेशा से ही देश की राजनीति को प्रभावित करती रही है. कुछ सियासी विशेषज्ञ तो 2017 के इस चुनाव को केंद्र की 2019 के चुनाव का पूर्वाभ्यास तक कहने लगे हैं, हालाकि इसे अतिश्योक्ति के शिवाय फिलहाल और कुछ नहीं कहा जा सकता. बीते दिनों राजनीति ड्रामा खूब देखा गया, जब मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल का मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में पहले विलय हुआ और विलय के अगले कुछ (तीन) दिनों में इसे रद्द कर दिया गया. इस विलय की घोषणा करते ही प्रदेश की राजनीति में मानो भूचाल सा आ गया. अगले क्षण अखिलेश यादव ने विलय पर नाराजगी दर्ज करा दी तो शिवपाल ने सफाई में बयान दे दिया कि विलय का फैसला किसी और ने नहीं खुद परिवार और पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने लिया था. आमतौर पर चुनाव, विलय और गठबंधन जैसे मामले पार्टी के अंदरूनी होते हैं लेकिन मुख्तार अंसारी की पार्टी के विलय से लेकर बाहर का रास्ता दिखाए जाने तक पूरा का पूरा मामला किसी नाटक की तरह सामने आया. गौरतलब है कि 2012 में विधानसभा चुनाव से पहले ठीक ऐसा ही प्रकरण पश्चिमी उत्तरप्रदेश के बाहुबलि माफिया डीपी यादव के साथ हुआ. पार्टी ने अखिलेश के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला लिया और दूसरी तरफ डीपी यादव की राष्ट्रीय परिवर्तन पार्टी का समाजवादी पार्टी में विलय कर लिया गया. अखिलेश की प्रतिक्रिया के मुताबिक उन्हें इस विलय का इल्म नहीं था और वह खबर सुनते ही भड़क उठे. नतीजा, कि आनन-फानन में पार्टी की एक कार्यकारिणी तलब की गई और डीपी यादव को उनकी पार्टी समेत बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. संदेश साफ था कि यह समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह की पार्टी से थोड़ा जुदा है और यहां अखिलेश की बेदाग छवि को पेश किया जाना है. इसका फायदा चुनाव के नतीजों में समाजवादी पार्टी के पक्ष में आया और मुख्यमंत्री के पद पर बैठाने के लिए अखिलेश की दावेदारी पुख्ता हो गई. बहरहाल, ऐसा कतई नहीं है कि अखिलेश की सरकार बनने के बाद से समाजवादी पार्टी में दागदार और माफिया टैग वाले नेताओं की एंट्री पर किसी तरह का बैन लगा है. बीते चार साल की सरकार के दौरान इलाहाबाद के माफिया अतीक अहमद हो, या जौनपुर से समूचे पूर्वांचल के माफिया अभय सिंह, या फिर गोंडा से माफिया विरेंद्र कुमार सिंह या फिर राजा भैया या विजय मिश्रा सरीखे लोग, सभी का रसूख अपने चरम पर रहा है. संदेश एकदम साफ है, कि यह उत्तर प्रदेश है और यहां क्राइम पर्दे के पीछे है. लिहाजा, हुई न ये मुलायम सिंह और शिवपाल सिंह की समाजवादी से थोड़ा अलग. हालांकि अमर सिंह के सपा से हाथ मिलाने को दूसरे नजरिये से देखा जा रहा है. दूसरी ओर जाति, धर्म जैसे मुद्दे तो एक अनिवार्य सत्य बनकर यहां के सियासत में अपनी जगह सुनिश्चत करता ही है साथ ही ऐसे चेहरों पर दांव भी लगने लगते हैं जो उत्तरप्रदेश के बड़े तबके को प्रभावित कर सकने में सक्षम हो. बहुजन समाज पार्टी के दिग्गज नेता और नेता प्रतिपक्ष रहे स्वामी कुमार मौर्य के बहुजन समाज पार्टी छोड़ने से सूबे की सियासत में एक नया मोड़ आ गया है. पिछले लोकसभा चुनाव में शून्य परिणाम पर चल रहे बीएसपी के लिए एक और फज़ीहत खड़ी हो गई है. ये फजीहत ना केवल मौर्य के पार्टी छोड़ने से पैदा हुई है बल्कि मायावती के विश्वासपात्र होने के बावजूद उनके द्वारा मायावती पर टिकट बेचने जैसे गंभीर आरोप लगाने से हुई है. स्वामी ने मायावती को अम्बेडकर की विचारधारा के खिलाफ़ होने का भी आरोप मढ़ा है. जबकि मायावती ने स्वामी को एक भटका हुआ और परिवारवाद से ग्रस्त व्यक्ति बताया. लेकिन ऐसे में एक सवाल उठता है कि बहनजी द्वारा एक भटके हुए नेता को राह में लाने के लिए नेता प्रतिपक्ष जैसे अहम पद कैसे दे दिया गया? जिस तरह मायावती अपने बारे में अक्सर कहा करती हैं कि वे परिवारवाद के खिलाफ है लेकिन एक भटके हुए नेता के परिवार को टिकट देकर वे अपने सिद्धांतों से कैसे समझौता करने के लिए बाध्य हो गईं? खैर राजनीति में कोई ज्यादा समय तक दोस्त या दुश्मन नहीं रहता लेकिन इसी दोस्ती और दुश्मनी की बुनियाद पर राजनीतिक उम्मीदें परवाज़ करती हैं. बहुतों का मानना है कि स्वामी के पार्टी छोड़ने और किसी अन्य पार्टी का दामन थामने से लाभ किसी को भी हो लेकिन इसका घाटा बहुजन समाज पार्टी के खाते में ही जाएगा! आखिर स्वामी पर बीएसपी ने भरोसा कर उन्हें नेता प्रतिपक्ष बनाया था और ऐसे में चुनाव से पहले बीएसपी के पक्ष में हवा बनाने के बजाय पार्टी को झटका देने से पार्टी की कमर टूटती दिखाई दे रही है. लगातार कांग्रेस के गिरते ग्राफ के मद्देनजर यूपी का चुनावी मैदान कांग्रेस को आक्सीजन दे सकती है, इसी उम्मीद में कांग्रेस ने राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएं ली है लेकिन कांग्रेस की अंदरुनी गुटबाजी और कलह प्रशांत किशोर की रणनीति की सफलता को नकारात्मक रूप से ही अब तक प्रभावित करती रही है. भाजपा यूपी को जीत कर यह संदेश देना चाहती है कि अब वह युग आ गया जिसे वह कांग्रेस मुक्त भारत के रूप में रेखांकित कर रही है. जातीय समीकरण सहित विकास और अपराध को मुद्दा बना भाजपा सपा सरकार के साथ बसपा को भी घेरने में लगी है. वैसे भी कांग्रेस उसकी प्राथमिकता में नहीं है, कारण कि कांग्रेस स्वयं अपने अस्तीत्व के लिए संघर्षरत है. ऐसे में यूपी के चुनावी दंगल का रोमांच अब धीरे-धीरे सिर चढ़ने लगा है.

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